तानहं द्विषत: क्रूरान्संसारेषु नराधमान् |
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु || 19||
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि |
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् || 20||
तान्–इन; अहम् मैं; द्विषत:-विद्वेष; क्रूरान्–निर्दयी; संसारेषु–भौतिक संसार में; नराधमान्–नीच और दुष्ट प्राणी; क्षिपामि डालता हूँ; अजरस्त्रम्-बार-बार; अशुभान्-अपवित्र; आसुरीषु-आसुरी; एव–वास्तव में; योनिषु–गर्भ में; आसुरीम्-आसुरी; योनिम्-गर्भ में; आपन्ना:-प्राप्त हुए;मूढाः-मूर्ख; जनमनि जनमनि-जन्म-जन्मांतर; माम्-मुझको; अप्राप्य–पाने में असफल; एव-भी; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; ततः-तत्पश्चात्; यान्ति–जाते हैं; अधमाम् निन्दित; गतिम्-गंतव्य को।
BG 16.19-20: इन दुष्ट और निर्दयी व्यक्तियों को मैं निरन्तर जीवन-मृत्यु के चक्र में आसुरी प्रकृति के गर्मों में डालता हूँ। ये अज्ञानी आत्माएँ बार-बार आसुरी प्रकृति के गर्थों में जन्म लेती हैं। मुझ तक पहुँचने में असफल होने के कारण हे अर्जुन! वे शनैः-शनैः अधम गति प्राप्त करते हैं।
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श्रीकृष्ण पुनः आसुरी मनोवृत्ति के परिणामों का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि अगले जन्म में वे उन्हें आसुरी परिवारों में ही जन्म देते हैं जहाँ उन्हें वैसा ही आसुरी परिवेश मिलता है। वही वे अपनी निकृष्ट प्रवृत्ति को पूर्णतः अभिव्यक्त करते हैं। इस श्लोक द्वारा हम यह कह सकते हैं कि जन्में योनि, लोक और परिवेश का चयन करना जीवात्मा के हाथ में नहीं होता है। इस संबंध में भगवान मनुष्य के कर्मों के अनुसार निर्णय करते हैं। इस प्रकार से आसुरी लोग निकृष्ट योनियों जैसे सर्पो, छिपकलियों और बिच्छुओं की योनियों में धकेले जाते हैं जो बुरी मानसिकता के पाते हैं।